अयाचित सलाह यानी कि वो सलाह जो आपको बिना मांगे मिलती है, बोले तो फ्री-फण्ड की सलाह।
जो अक्सर सभी बांटते हुए नज़र आ जाते हैं, कोई-न कोई किसी-न-किसी को ऐसी सलाह देता हुआ मिल ही जाता है।
आपको भी कभी-न-कभी तो मिली हो होगी!
मुझे तो अक्सर मिलती ही रहती है। हालांकि इसमें कोई बुराई नही है पर कभी-कभी मन खिन्न हो जाता है इन सलाहों से। मानो मुझे सच में कुछ नहीं आता। मैं इतनी नासमझ कैसे हो सकती हूँ!!
क्या मुझे ये भी नहीं पता कि अपनी बेटी को कौन से कपड़े पहनाने चाहिए? अब इस पर कोई टिप्पणी दे तो शायद ही किसी को अच्छा लगे। मेरी बेटी है मेरा भी मन करता है कि उसे अच्छे से तैयार करूँ, नये कपड़े पहनाऊँ लेकिन नहीं! ऐसे नहीं करो, वैसे नहीं करो, यहाँ मत बैठो, ऐसे मत खाओ, ये मत खाओ और न जाने क्या-क्या!
लेकिन मैंने कभी पलट कर कोई जवाबदारी नहीं की। हमेशा सुना ही और उन लोगों का मन रख लिया। बुरा तो लगता रहा पर सोच लेती कि शायद ठीक ही कह रहे होंगे!
कभी-कभी तो लगता है कि मैं इंसान नहीं एक रोबोट हूँ जो सामने वालों की कही हुई बातों को बस फॉलो करता है। आँखें बंद, दिमाग पर ताला बस आदेश का पालन! लेकिन सोचती हूँ कि ऐसा नहीं होना चाहिए न! जो बात ठीक नहीं लग रही उसे तो वहीं रोक देना चाहिए न! क्योंकि अगर आप ऐसा नहीं करते तो धीरे-धीरे सामने वाला पक्ष आप पर हावी होने लगता है। ऐसा न करने से खुद की सोच, समझ पर बहुत गहरा असर होता है। आपका खुद पर से भरोसा उठने लगता है। मेरे साथ ये होता आया है। कई बार ये भी हुआ कि मैंने खुद पर संदेह किया। ख़ैर, मैंने ये बात समझने में बहुत देर की।
बहुत-सी बातें दिल में घर कर जाती हैं जिसको हम शायद ही भुला पाते हैं।
जो अक्सर सभी बांटते हुए नज़र आ जाते हैं, कोई-न कोई किसी-न-किसी को ऐसी सलाह देता हुआ मिल ही जाता है।
आपको भी कभी-न-कभी तो मिली हो होगी!
मुझे तो अक्सर मिलती ही रहती है। हालांकि इसमें कोई बुराई नही है पर कभी-कभी मन खिन्न हो जाता है इन सलाहों से। मानो मुझे सच में कुछ नहीं आता। मैं इतनी नासमझ कैसे हो सकती हूँ!!
क्या मुझे ये भी नहीं पता कि अपनी बेटी को कौन से कपड़े पहनाने चाहिए? अब इस पर कोई टिप्पणी दे तो शायद ही किसी को अच्छा लगे। मेरी बेटी है मेरा भी मन करता है कि उसे अच्छे से तैयार करूँ, नये कपड़े पहनाऊँ लेकिन नहीं! ऐसे नहीं करो, वैसे नहीं करो, यहाँ मत बैठो, ऐसे मत खाओ, ये मत खाओ और न जाने क्या-क्या!
लेकिन मैंने कभी पलट कर कोई जवाबदारी नहीं की। हमेशा सुना ही और उन लोगों का मन रख लिया। बुरा तो लगता रहा पर सोच लेती कि शायद ठीक ही कह रहे होंगे!
कभी-कभी तो लगता है कि मैं इंसान नहीं एक रोबोट हूँ जो सामने वालों की कही हुई बातों को बस फॉलो करता है। आँखें बंद, दिमाग पर ताला बस आदेश का पालन! लेकिन सोचती हूँ कि ऐसा नहीं होना चाहिए न! जो बात ठीक नहीं लग रही उसे तो वहीं रोक देना चाहिए न! क्योंकि अगर आप ऐसा नहीं करते तो धीरे-धीरे सामने वाला पक्ष आप पर हावी होने लगता है। ऐसा न करने से खुद की सोच, समझ पर बहुत गहरा असर होता है। आपका खुद पर से भरोसा उठने लगता है। मेरे साथ ये होता आया है। कई बार ये भी हुआ कि मैंने खुद पर संदेह किया। ख़ैर, मैंने ये बात समझने में बहुत देर की।
बहुत-सी बातें दिल में घर कर जाती हैं जिसको हम शायद ही भुला पाते हैं।
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